कंगना रनौत के निर्देशन में बनी फ़िल्म इमर्जेन्सी को सेंसर बोर्ड ने लंबे वक्त से रोक रखा था फ़िल्म में खालिस्तानी मूवमेंट से जुड़े एक बड़े हिस्से पर आपत्ति दर्ज करवाई गई वो सीन काटे गए उसके बाद फिलम आज यानि 17 जनवरी को रिलीज हुई है फ़िल्म कैसी है उसके मजबूत और कमजोर पहलू क्या है अब उन पर बात करेंगे इस फिल्म का पहला शॉट फ्रेम पर लिखा आता है साल 1929 आनंद भवन, नेहरू परिवार का घर, इंदिरा नाम की बच्ची अपने दोस्तों के साथ बगीचे में खेल रही है बच्चे भागते हुए घर में आते हैं.
हम कुछ महिलाओं को देखते हैं उनमें से एक इंदिरा गाँधी की बुआ विजयलक्ष्मी है उनके बगल में खड़ी वो महिलाएं हैं जिनका क्रेडिट्स में एक्स्ट्रा जॉली प्लेट्स के नीचे नाम आता है लेकिन सबसे पहले ध्यान विजय लक्ष्मी पर जाना चाहिए था लेकिन आप उन एक्स्ट्राज को देखते है उसकी वजह है कि अलग अलग गुटों में बंटी इन महिलाओं के सर एक ही दिशा में घूम रहे हैं जैसे उनसे कहा गया हो की आपको बस बाते करने की एक्टिंग करनी है बातें नहीं करनी है बस एक्टिंग करनी है ये फर्क है दोनों में, खैर दो तीन बार इंदिरा अपने दादाजी के पास जाती है.
वो उन्हें इंद्राप्रस्थ की कहानी सुनाते हैं छोटी इंडिया के दिमाग में बचपन से इस बात का बीज पड़ जाता है कि दिल्ली जिसकी हुई विदेश उसका हुआ स्क्रीनप्ले के स्ट्रक्चर के लिहाज से इस पॉइंट को इनसाइडिंग इंसिडेंट कहते हैं यानी वो पॉइंट जहाँ से आपकी जो प्रोटेगर है उसकी याददाश शुरू होती है उसके जीवन में बदलाव आता है ये इनसाइडिंग इंसिडेंट का मजबूत नमूना तो नहीं है मगर फिर भी आप आगे बढ़ते हैं बता दें कि आगे का सफर सुगम नहीं होने वाला है.
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इमरजेंसी की राइटिंग आगे वही गलती करती है जो स्वयं बहादुर ने की थी फिल्म बेसिक स्क्रीन राइटिंग के स्ट्रक्चर का पालन करने की जगह बस एक किस्से तरह से दूसरे किस्से पर कम्प करती जाती है इसे लार्जर दैन लाइफ शख्सियत के जीवन में बहुत कुछ घटता है उनकी पूरी कहानी दिखाने के लिए फिल्म भी छोटा मीडियम पड़ सकता है ऐसे में आप सीन को एंगेजिंग बनाने की जगह बस उसे रख देते है उस सीन से पहले क्या घटा उसके बाद क्या हो रहा है.
उससे कोई कनेक्शन नहीं है बस छूकर निकल जाने से नुकसान ये होता है की आप अपने किरदारों को ह्यूमनाइज नही कर पाते वो इतिहास के पन्नों से निकले पात्र बनकर रह जाते हैं वो ऐसे इंसान क्यों हैं उनके आंतरिक मतभेद क्या है ऐसे इंसान बनने के पीछे कैसी नीव पड़ी है इन सबको जगह नहीं मिलती, नतीजतन आप उन किरदारों के लिए कुछ महसूस नहीं कर पाते कोई रिश्ता नहीं बनता आपका उनसे और जब कुछ महसूस ही नहीं होगा वो तो आप ऐसे इंसानों की कहानी क्यों जानना चाहेंगे ये सवाल है.
बाकि फिल्म से दूसरी शिकायत ये हैं की अधिकांश किरदारों को बस सिंगल नोट में समेट कर रख दिया गया जैसे आप संजय गाँधी को गुस्से में देखते हैं फ़िल्म की रेटिंग ये सुनिश्चित करती है की आप अगले हर सीन में उस आदमी को इसी तरह देखें उसके किसी दूसरे शेप से आपको परिचित नहीं करवाया जाएगा ऐसा ही जेपी नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ में होता है जब आप सेफ खेलने की कोशिश करते हैं.
और अपने किरदारों को एक ही रोशनी में दिखाना चाहते हैं तो इस समय ऐक्टर्स के पास भी अपनी रेंज एक्स्प्लोर करने का कोई स्कोप नहीं होता कोई ऑप्शन नहीं बचता यही वजह है कि इमर्जेन्सी कंगना रनौत, अनुपम खेर और श्रेयस तलपड़े की सबसे औसत कामों में से एक है जबकि ये तीनों बहुत अच्छे एक्टर हैं फ़िल्म में बहुत खामियां हैं बाकी ऐसा नहीं है कि उसके पास अपने कुछ सॉलिड मूवमेंट नहीं है जैसे जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री आवास छोड़ रही होती है.
तो वहाँ काम करने वाले लोग भावुक हो जाते हैं वो कहते हैं कि हमें अपने साथ ले चलिए हम फ्री में काम करेंगे यहाँ आपको आपके किरदार के ह्यूमैन साइड का एक पहलू देखने को मिलता है इसी तरह एक और सीन आता है जब इंदिरा बिहार जाती है यहीं से आधी रोटी खाएंगे इंदिरा जी को लाएंगे नारे का जंग होता है यहाँ फिल्म अपनी नायिका को गर्दन ऊपर करके नहीं देखते बल्कि उसे हाई लेवल पर ले कर आती है लेकिन मसला यही है की ऐसे मोमेंट्स बस चुनिंदा है गिनती भर.
इमर्जेन्सी में हिंदी के अलावा कई किरदार बांगला, फ़्रेंच और तेलुगु भी बोलते नजर आते हैं कुछ जगहों पर ऐसे डायलॉग्स को हिंदी में डब किया गया लेकिन कई मौकों पर ओरिजिनल भाषा को रहने दिया गया जो कि ठीक बात थी पर दिक्कत ये थी कि सीन को पूरी तरह से समझने के लिए सब टाइटल होते हैं तो ज्यादा बेहतर होता लेकिन इमर्जेन्सी से ये हमारी सबसे हल्की शिकायत है बाकी अगर आपने फ़िल्म का फर्स्ट डे फर्स्ट शो देख लिया तो आपको ये फ़िल्म कैसी लगी हमे कमेंट में जरूर बताएं.